दूसरी तरफवाली दासी रानी साहिबा को खबर देने के लिए रनवास चली गई थी।
माता की बगल में बुआवाली चौकी से कुछ हटकर, एक सोफा डलवाकर बैठी थीं।
दासी बुआ को लेकर चली, साथ मुन्ना। बुआ पर प्रभाव पड़ने पर भी मन में धर्म की ही विजय थी।
उनका भतीजा ब्याहा हुआ है जिसके इन्होंने पैर पूजे हैं।
ये उससे और उसकी माँ से बराबरी का दावा नहीं कर सकते, बुआ तो उनके इष्टदेवता से भी बढ़कर हैं।
भाव में तनी हुई बुआ रनवास के भीतर गईं।
वह समझे हुए थीं, समधिन मिलेंगी, भेंट देंगी, आदर से ऊँचे आसन पर बैठालेंगी, तब उससे कुछ नीची जगह पर बैठेंगी।
जाति की हैं, जाति की बर्ताववाली बातें जानती हैं, इसीलिए मुन्ना की बातें कुछ समझकर भी अनसुनी कर गई थीं; सोचा था, यह बंगालिन हमारे रस्मोरिवाज क्या जानती है?
पर भीतर पैर रखते ही उनके होश उड़ गए।
रानी साहिबा पत्थर की मूर्ति की तरह मसनद पर बैठी रहीं। एक नजर उन्होंने बुआ को देख लिया, उनके चेहरे का सुना हुआ वर्णन मिलाकर चुपचाप बैठी रहीं।
राजकुमारी ने आँख ही नहीं उठाई। एक दफे माता को देखकर सिर झुका लिया।
मुन्ना ने भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर रानी साहिबा को, फिर राजकुमारी को प्रणाम किया।
बड़े सम्मान के स्वर से बुआ को परिचय दिया-महारानीजी, राजकुमारीजी।